
जरा सोचो Just Think

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ओ नैया!
अपना पाल फैलाओ,
रुक गई क्यों तुम बीच समंदर,
यूं ही व्यर्थ न समय गंवाओ,
लहराती झूमें मस्त हवाएं,
तुम भी इनके संग लहराओ,
भूल के अपना सारा दुख दर्द,
नृत्य करो और गुनगुनाओगे,
मत डरो देख के लहरें ऊंचीं,
पीठ पे इनकी तुम चढ़ जाओ,
भय भीतर से फेंक निकालो,
सीने में साहस भर दिखलाओ,
पहचानो अपने निज बल को,
न रुको, चलो, आगे बढ़ जाओ।
O Boat!
Spread your sails,
Don’t waste your time
by stopping
in the mid of ocean,
You must swing & wave
with the cool wind,
Sing & dance with them
to forget all
your pain & sorrow,
Don’t be afraid
to see
the high waves,
Get on their back,
Recognize
your inner strength,
Throw the fear
out of you,
Show yourself with courage,
Don’t stop,
Come on,
Go ahead.
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नहीं था जब कुछ भी यहां,
तिमिर – प्रकाश का जन्म हुआ,
तब से लेकर वर्तमान तक,
दोनों में संघर्ष हुआ,
तिमिर था फैला दूर दूर तक,
इसका अपना राज्य था,
नहीं था इसमें कुछ भी पनपा,
फिर प्रकाश विजयी हुआ,
सूर्य रश्मियां फैलीं जैसे ही,
नवजीवन का उदय हुआ,
छंटा तिमिर – प्रकाशित ब्राह्मण्ड,
प्रसन्नता का वास हुआ,
केवल एक दीप बहुत है,
इस दीवाली तिमिर मिटाने को,
प्रज्ज्वलित दीप हो बाहर भीतर,
खुशहाली को लाने को,
मिटे विकार – छंटे अंधकार,
है यही आस दीवाली को।
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कोई कहे अपना – कोई पराया,
किसी को कुछ भी समझ न आया,
सब कोई कर्म है अपना लाया,
भोग के हर कोई जग से जाया,
किसको कहें यह है मेरा अपना,
नहीं अपना – अपना ही साया,
जब जन्मा था – हाथ था खाली,
जो पाया सब छोड़ के जाया,
मिले जो संगी – साथी जग में,
अंत में संग न कोई जाया,
सुख में गुड़ में चींटे बन चिपके,
दुख में नजर न कोई आया,
ढूंढे बहुत सहारे व्यर्थ ही,
अंत सहारा भीतर पाया,
अपना हमदम अपने भीतर,
अंतिम दम तक साथ निभाया।
सबकी अपनी अपनी बुद्धि,
सबके पास है अपना मन,
कोई तरसे दाने दाने को,
किसी के घर है धन ही धन,
कोई कलूटा काला बदसूरत,
किसी का स्वर्ण सा दमके तन,
किसी के मुख से झड़ते फूल,
कोई फुंफकारे काढ़ के फन,
कोई फाड़े कपड़े सबके,
कोई सबके लिए सज्जन,
सबके अपने कर्म – अपना स्वभाव,
छोड़ दे तूं सारी उलझन,
कर सत्कर्म – बन पावन – तप के,
सदा नहीं रहता जीवन।
On the occasion of Mahatma Gandhi and Lal Bahadur Shashtri jayanti at Khadi Ashram, Nalagarh
दो अक्तूबर को भारत में,
दो सुगंधित फूल खिले,
पर जीवन भर राहों में,
कांटें ही उनको बिछे मिले,
विपरीत परिस्थितियों में ही,
वह जीवन भर घिरे रहे,
पर कभी उन्होंने हार न मानी,
संघर्षों में लगे रहे,
बापू का स्वदेशी का नारा गूंजा,
जब चरखे का चक्र चला,
हर इक जन तक खादी पहुंचा,
और विदेशी वस्त्र जला,
जय जवान जय किसान कहा
शास्त्री जी ने,
किसानों का उचित सम्मान किया,
उनके पराक्रम के चलते सेना ने,
पाकिस्तान परास्त किया,
आओ हम भी लग जाएं,
उनके सपने सच करने में,
रंगें देशभक्ति में खुद को,
जुट जाएं देश को विकसित करने में,
जल-थल-वायु करें साफ,
स्वच्छ भारत का लें संकल्प,
स्वस्थ तन-मन रखने में,
स्वच्छता का नहीं है कोई विकल्प,
अब लग जाएं हम स्वच्छता में,
आभा से हर कोना दमके,
छा जाएं जग के नभ पे,
बन के सूरज भारत चमके ।
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भारतीय संस्कृति थी विश्व में फैली,
संस्कृत ही प्रथम भाषा थी,
हिंदी इसकी मुंहबोली बेटी थी,
और भारत की परिभाषा थी,
इस पर काले बादल छाए,
घनघोर विष की वर्षा लाए,
अरबी फारसी उर्दू आदि ने,
इस पर गहरा आघात किया,
अंगेजों की अंग्रेजी ने,
इसको लगभग समाप्त किया,
पर विद्वानों ने अनवरत,
इसका भी उपचार किया,
लेकर इसको साथ चले,
फिर से इसका प्रचार हुआ,
राग छुपे हैं इसमें सारे,
इसमें छुपा समस्त संगीत,
नहीं है बनता इसके बिन,
सुगम मनोहर कोई गीत,
जन जन के प्राणों में बसती,
साहित्यकारों की है मीत,
इक दिन ऐसा आएगा फिर से,
यह विश्व पटल पर छाएगी,
भारत होगा विश्व गुरु,
विश्व भाषा हिंदी कहलाएगी,
हिंदी ही बोली जाएगी,
हिंदी ही बोली जाएगी।
आईये, सत् साहित्य पढ़ने का आनंद लिया जाए http://www.keyofallsecret.com
तोड़ गुलामी की जंजीरें,
आजादी की अलख जगाई,
देश – कौम के मतवालों ने,
अपनी – अपनी बली चढ़ाई,
वर्तमान हम गौर से देखें,
आजाद नहीं हैं आज भी हम,
पाश्चात्य संस्कृति सर चढ़ बोले,
अपना सब कुछ भूल गए हम,
कभी हुआ करता था भारत,
आज अभी से दो गुना,
कितना कुछ छिन गया है हमसे,
अब हो गया यह बौना,
ज्ञान समस्त लेकर हमसे ही,
पश्चिम आगे और बढ़ा,
हमसे ही सब छीन- छान कर,
उन्नति के शिखर पे जा चढ़ा,
दे अपनी भौंडी असभ्यता,
नव पीढ़ी को बर्बाद किया,
संस्कृति सभ्यता ले भारत की,
ह्रदय से अंगीकार किया,
अब भी समय है चेत जाओ,
तोड़ गुलामी की जंजीरें मन से,
नवयुग का निर्माण करो,
स्वयं को आजाद करो।।
दिल में जले चिराग को,
बुझने न दीजिए,
जिंदगी को खुद पे बोझ,
बनने न दीजिए,
जमाने की ठोकरों से,
लड़खड़ा भले ही जाईए,
बुरे वक्त के दरिया में,
डूबीए – उतराईए,
उठिए…हिम्मत तो कीजिए,
खुद को सम्भालिए,
चलने से ही तो है जिंदगी,
कदम बढ़ाईए,
चलना न कम कीजिए,
चलते ही जाईए,
जिस्म तो है एक जरिया,
केवल इसे न देखिए,
ताकत का जरिया तो है रूह,
रूह में उतर के तो देखिए,
आगे है रोशन राह,
आगे चल के तो देखिए।
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बढ़ता है समय आगे
रुकता नहीं है,
बदलता चोला नया है
भीतर होता वही है।
तपेगा जो हर पल
निखरेगा वही
भविष्य के शिखर पर
चमकेगा वही
जिसने पहना कपड़ा बढ़िया,
वही हो गया संत,
पता नहीं है चाहे उसको,
मिलता कैसे कंत,
करे कर्म कृतघ्न वाले,
रहता सदा ही जंत,
मन भर के वह भोग करे,
भोगे भोग अनंत,
नहीं जानता अपने बारे,
कब हो जाएगा अंत,
बक्के बक बक दे उपदेश,
होत नहीं करमवंत,
लूटे जन को धर्म नाम पे,
होत जाए धनवंत,
रखे चाहे भेष अनेकों
नहीं बनता पतवंत,
होता मिलन उसी का प्यारे,
जो होता सतवंत।
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उम्र बढ़ती रही,
मैं बिगड़ता रहा,
लालसा बढ़ती रही,
मैं बढ़ाता रहा,
मासूमियत छोड़ कर,
वह बचपन की,
जवानी में गोते लगाता रहा,
मैं जोड़ता रहा,
तमाम उम्र बहुत कुछ,
पर अनमोल सांसें गंवाता रहा,
मैं समझता रहा,
गहरे समंदर में खुद को,
पर कीचड़ में खुद को लिपटाता रहा,
दुनिया को हर पल निहारा किया,
पर खुद से ही,
नजरें चुराता रहा,
जो न करना था,
वह ही किया उम्र भर,
जो था करना,
उसी से किनारा मैं करता रहा,
गर अब भी जाग जाऊं,
सोते से आज भी,
मिलेगा वह जो,
हर क्षण है,
दिल में धड़कता रहा।
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बीज हैं आते पौधों से,
पौधे हैं आते बीजों से,
यह क्रम यूं ही चलता रहता है,
न जाने कितने युग से,
नहीं है कोई जान सका,
आए यह बीज कहां से,
क्या पहले से ही थे ढेरों,
या आए हैं उस एक से,
आरंभ हुआ है जीवन का,
इन अनगिनत बीजों से,
देते जीवन जीवों को,
बन फूल – फसल – फल – सब्जी से,
शुद्ध वायु – लकड़ी देते,
अपनी पावन हरियाली से,
होता आश्चर्य कैसे बनता,
वृक्ष विशाल लघु बीजों से,
लग जाते नव निर्माण में,
ज्यों ही मिलते धरती मां से,
नमन उसे जो देता शक्ति,
बीजों को भीतर से।
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मैं रहता हूँ उस देश में,
जहाँ नानक की भक्ति है,
गुरु गोबिंद की शक्ति है,
जहाँ धर्म की आन की खातिर,
शीश लुटाए जाते हैं,
जहाँ पे मांओं के बच्चे,
चक्की में पिसाए जाते हैं,
जहाँ पे नन्हे नन्हे प्राण,
भालों पे नचाए जाते हैं,
जहाँ फतेह जोरावर सिंह,
दीवारों में चिनाए जाते हैं,
जहाँ गुरु अर्जुन देव जी,
अंगारों पे बिठाए जाते हैं,
जहाँ पे भाई मतीदास,
आरों पे चढ़ाए जाते हैं,
जहाँ पे भाई मनी सिंह,
अंग-अंग कटवाए जाते हैं,
जहाँ चांदनी चौक में गुरु,
शीश लुटाए जाते हैं,
जहाँ गीदड़ से परिवर्तित कर,
सिंह सजाए जाते हैं,
जहाँ पे सन्तों के द्वारा,
भगवान मिलाए जाते हैं,
हाँ, मैं रहता हूँ उस देश में।
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जब हम न थे – जब तुम न थे,
जब धरा हरी और भरी सी थी,
कितना जल था – कितनी प्रकृति,
ऊंचे पर्वत – गहरे समुंद्र,
सारी नदियां कल – कल करतीं,
चहुं ओर थे वन – हरियाली थी,
न नगर ही थे – न डगर ही थे,
न सीमा थी – न देश ही थे,
वर्षा सिंचित करती रहती,
मिट्टी सारी सोंधी सी थी,
न गैसें थीं – न प्रदूषण,
था पवित्र वातावरण,
काश – अब भी ऐसा हो जाए,
यह मानवता संभल जाए,
लोलुपता सब मिट जाए,
यह वन संपदा बढ़ जाए,
शुद्ध पवन चहुं ओर बहे,
सब महामारियां मिट जाएं,
हर मन में निश्चय हो जाए,
हर घर में पौधे लग जाएं,
घर – घर हरियाली लहराए,
स्वर्ग सी पृथ्वी हो जाए,
सबके मन फिर से खिल जाएं।
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अनंत काल से अनंत काल तक,
घण्टा समय का बज रहा है,
न जाने किस घड़ी – किस क्षण से,
चक्का इसका चल रहा है,
एक से लेकर बारह तक यह,
लगा के चक्कर घूम रहा है,
कभी न रुकता – कभी न थमता,
अद्भुत शक्ति से भरा हुआ है,
पैदा किया है इसने हर क्षण,
हर युग में मौजूद रहा है,
नहीं है गणना इसकी कोई,
कब से चक्र यह घूम रहा है,
कहीं न आता – कहीं न जाता,
पर हर कहीं यह देख रहा है,
सभी हैं निकले इसमें से ही,
सब कुछ इसी में सिमट रहा है,
समय बड़ा बलवान है – सच है,
समय पे सब कुछ घट रहा है,
झांकें इसमें ज्योतिष – गणितज्ञ,
हर विषय इसी से निकल रहा है,
जिसने जान लिया है इसको,
वही ज्ञान को प्राप्त हुआ है।
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अनंत काल से अनंत काल तक,
घण्टा समय का बज रहा है,
न जाने किस घड़ी – किस क्षण से,
चक्का इसका चल रहा है,
एक से लेकर बारह तक यह,
लगा के चक्कर घूम रहा है,
कभी न रुकता – कभी न थमता,
अद्भुत शक्ति से भरा हुआ है,
पैदा किया है इसने हर क्षण,
हर युग में मौजूद रहा है,
नहीं है गणना इसकी कोई,
कब से चक्र यह घूम रहा है,
कहीं न आता – कहीं न जाता,
पर हर कहीं यह देख रहा है,
सभी हैं निकले इसमें से ही,
सब कुछ इसी में सिमट रहा है,
समय बड़ा बलवान है – सच है,
समय पे सब कुछ घट रहा है,
झांकें इसमें ज्योतिष – गणितज्ञ,
हर विषय इसी से निकल रहा है,
जिसने जान लिया है इसको,
वही ज्ञान को प्राप्त हुआ है।
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सांझ को दिल थोड़ा घबराया,
पड़ा सोच – कुछ समझ न आया,
कुछ हल्का सा पीया – खाया,
कुछ पढ़ा – सुना – कुछ गुनगुनाया,
पर अनमने मन को रास न आया,
युक्ति हुई न कोई कारगर,
दिल को अपने डूबता पाया,
सब बात भुला – करके साहस,
जोर लगा के भीतर मन का,
परदा सांझ का जरा उठाया,
था घोर अंधेरा – दिखता न था,
मीलों घण्टों खुद को भटकाया,
चूर हुआ पर हार न मानी,
मद्धिम प्रकाश नजर था आया,
रात्रि कालिमा भंग हो गई,
फटी पौ – सूरज चढ़ आया,
अब जान लिया था मैने भी,
सांझ को दिल था क्यों घबराया,
बिछड़ के अपने ही प्रकाश से,
सुख और किसी में नहीं था आया,
पर उस सांझ का अंत मधुर था,
अब था मुझको समझ में आया।
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आजकल तो जिसको देखो,
तुलना करने बैठा है,
पास में हो कुछ या न हो,
न जाने क्यों ऐंठा है,
बोले बातें ज्ञान भरी,
भीतर कितना रीता है,
हांके गप्पें बड़ी बड़ी,
समझे खुद को नेता है,
करता अभिनय बात बात में,
जैसे कि अभिनेता है,
देख सफलता औरों की,
मन ही मन में जलता है,
मटमैला मन सना मैल से,
एकाकी में रोता है,
रख के भीतर बुरे विचार,
ऊपर तन को धोता है,
छोड़ दे ईर्ष्या,
कर मत कुंठा,
काहे विष को पीता है,
भंवर जाल में फंस के इसके,
बारम्बार जन्मता है,
कर सन्तोष उसी में प्यारे,
जितनी तेरी क्षमता है,
मान उसी में सुख
जितनी कि,
आवश्यक आवश्यकता है,
पर सुख देखन छोड़ के भाई,
कर सन्तोष जो लेता है,
देता भगवन उसी को प्यारे,
जो सम भाव से रहता है।
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अर्धचन्द्र
संग बिन्दी मस्तक,
देख हुआ
सब जग नतमस्तक,
दमके तेज
तुम्हारा ऐसा,
नेत्र हुए
जाते हैं चकमक,
लगा रहे जो
केवल तुझमें,
नहीं दिखा है
कोई अब तक,
कोई विरला
होता जग में,
जिसके द्वार
तू देता दस्तक,
नहीं समझ पाता है
तुझको,
लगा के बुद्धि
कोई विचारक,
वर्णन करे
समूचा तेरा,
नहीं है ऐसी
कोई पुस्तक,
वर्णन तेरे
अंतर् दर्शन का,
नहीं है आता
किसी के लब तक,
कृपा करे अपनी
जिस ऊपर,
केवल वही है
पहुंचे तुझ तक,
करो कृपा हे नाथ
अब मुझ पर,
द्वार खड़ा है
तुमरा बालक,
हे दीन दयाल
अनाथ के नाथ,
तुम स्वामी
मैं तुमरा सेवक।
कृपया मेरी वेबसाईट पे विजिट करके मुझे प्रोत्साहित करें…धन्यवाद http://www.keyofallsecret.com
ऐ बचपन तू लौट के आ,
जब मिलजुल के सब रहते थे,
अपना भी था परिवार बड़ा,
फूल खुशी के खिलते थे,
न कोई किसी की भाभी थी,
न कोई किसी का देवर था,
न किसी से कोई रंजिश थी,
न किसी के मुख पे तेवर था,
न जीजा थे न साली थी,
न घरवाली मतवाली थी,
दादा दादी की पलकों की,
छांव खूब घनेरी थी,
रोज कथा कहानी सुनते,
पलकों की छांव में रहते थे,
खुशी गमीं के मौकों पर,
रिश्तेदार जो आते थे,
हिस्सा बन कर हम सबका,
परिवार में ही घुल जाते थे,
पापा की आंखों के डर से,
अनुशासन में सब रहते थे,
मम्मी की लाड लडैया में,
छोटे सपने सच होते थे,
भईया दीदी की पकड़ के उंगली,
मेले में घूम के आते थे,
लड़ते भी थे भिड़ते भी थे,
पर अंत में भूल सब जाते थे,
हर शाम मोहल्ले के बच्चों संग,
खूब मस्तियां करते थे,
हर खेल को खेला करते थे,
कपड़े मिट्टी में सनते थे,
न ट्यूशन थी न लेक्चर था,
न ऑनलाइन का चक्कर था,
गाढ़ी लस्सी संग मक्खन था,
शुद्ध घी और शक्कर था,
बहुत याद आती है तेरी,
असली जीवन तो तुझमें था,
ऐ बचपन फिर लौट के आ,
यौवन से तू बढ़कर था।
वक्त का लम्हा कुछ ऐसे ही,
आगे से गुजर जाता है,
और मैं बेबस खड़ा,
बस देखता रह जाता हूँ,
जिंदगी से सांसें कुछ,
और निकल जातीं हैं,
मैं यूं ही ठगा सा,
खड़ा रह जाता हूँ,
उलटता पलटता हूँ,
ख्यालों को अपने,
अंजाने ही,
ढेरी सी लगाता चला चला जाता हूँ,
इक ख्याल को नापता हूँ,
तौलता हूँ इक को,
खुद ही उसमें उलझ पुलझ जाता हूँ,
इक ढेरी तो सिमटती नहीं,
दूजी में फिर से खो जाता हूँ,
अपनी अक्ल के घोड़ों से,
दौड़ खूब लगवाता हूँ,
जान के भी अंजान ही रहता,
समझ नहीं कुछ पाता हूँ,
जितनी बार हैं गिरतीं पलकें,
मौत को गले लगाता हूँ,
ताज्जुब होता है तब मुझको,
जब खुद को फिर से जिंदा पाता हूँ,
मोहब्बत तुम्हें भी है मुझसे,
यही कयास लगाता हूँ,
तभी तो इक के जाते ही,
दूजी सांस ले पाता हूँ।
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दृष्टि दर्पण से मिलाकर,
देख ले अंतर पतित,
जन्मों जन्मों का किया,
जो हो गया है विस्मृत,
स्मृत जो हो जाएगा तो,
हो जाएगा फिर लज्जित,
कर ले तौबा दुष्कर्मों से,
दिल से कर ले प्रायश्चित,
छोड़ दे लालच,
और कितना करेगा एकत्रित,
कर ले अध्ययन गहन,
विचार कर ले संकुचित,
अब न कर अपना पराया,
स्वयं में हो प्रतिष्ठित,
कर के खेती प्रेम की,
सच को कर ले अंकुरित,
तोड़ बेड़ी सीमाओं की,
कर स्वयं को असीमित,
मांज धूमिल अंतःकरण,
और कर ले उज्जवलित,
जला के दीप सत्य का,
कर ह्रदय में प्रज्ज्वलित।
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गली तेरी मिली नही,
ढूंढती मैं थक गई,
करे जतन सारे मगर,
अंत में मैं रुक गई,
मान ली है हार मैने,
और न चल पाऊंगी,
ढूंढने तुझे बता,
अब किधर को जाऊंगी…
ऐ पगली रुक जा जरा,
मत दौड़ तू,
थम जा जरा,
न भाग तू इधर उधर,
गली गली शहर शहर,
ढूंढने से यूं मुझे,
ढूंढ न तू पाएगी,
ईंट पत्थरों के घर में,
बस भटकती जाएगी,
डुबकियां लगाएगी,
परिक्रमा को जाएगी,
घूम घूम फिर घूम के,
स्वयं को वहीं पे पाएगी,
जिस समय तू स्वयं से,
मित्रता कर पाएगी,
अपने ही संग में मुझे,
बैठा हुआ तू पाएगी,
नहीं गली मेरी कोई,
इस नगर या उस नगर,
अपनी गली में झांक ले,
मुझमें ही तू समाएगी।
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आज मैने खुशियां,
ढूंढ़ने की थी ठानी,
मल्टीप्लेक्स में पिक्चर देखी,
मैने ‘राजा जानी’,
हाल में जाकर ली थी,
मैने बोतल पानी,
इतनी मंहगी पेटिस तो,
मैने नहीं थी खानी,
अनमने मन से वहाँ से,
मैने की रवानी,
घुस गया बढ़िया रेस्टोरेंट में,
जेब थी पड़ी गंवानी,
खुशियां मिलीं न मुझको,
उल्टे याद आ गई नानी,
क्यों न पार्क में,
पेड़ पे चढ़ के,
लटक के झूलूं टहनी,
ज्यों ही चढ़ के पेड़ पर मैने,
लात बढ़ा कर तानी,
गिरा जोर से धम्म से नीचे,
अब नहीं रही जवानी,
देख नजारा पास में आई,
एक बुजुर्ग परनानी,
कहां पे खुशियां ढूंढ़ रहा तूं,
कर कर के मनमानी,
वह तो तेरे भीतर ही हैं,
बाहर कहां मनानीं,
सोच ध्यान से,
खोज ले भीतर,
बन कर के तूं ज्ञानी,
तेरे ही भीतर हैं मालिक,
और है संग भवानी,
खुरच उदासी फेंक दे कूड़ा,
खुशियां स्वयं आ जानीं।
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तुम्हीं तुम हो
मेरे लिए,
ब्रम्हांड में भी हो,
और पार भी हो,
सर्वज्ञ हो,
मर्मज्ञ हो,
देवी मेरी,
मेरे देव हो,
तुम्हीं तुम हो दाता मेरे,
रखवाले मेरे तुम हो,
शब्द तुम्हीं,
तुम्हीं गीत हो,
वाद्य तुम्हीं,
संगीत भी हो,
घण्टी में तुम्हीं,
बंशी में तुम हो,
डमरू में तुम्हीं,
हर नाद में तुम हो,
रागों में राग हो,
तुम्हीं बैराग्य हो,
तुम्हीं मेरी पुस्तक,
तुम्हीं मेरा ज्ञान हो,
अंखियों में सदा,
बसे तुम हो,
जिधर देखूं,
तुम्हीं तुम हो,
मेरी सदा से,
तुम्हीं प्रीत हो,
मैं खण्डों में विभाजित हुआ जा रहा,
टूटता बिखरता बहा जा रहा,
हे करुणा के सागर,
समेटो मुझे,
तुम्हीं तुम सम्पूर्ण हो,
अखण्ड हो,
तुम्हीं तुम हो,
तुम्हीं तुम हो।
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क्या खो गया है तेरा इतना,
जो तूं इतना रोए है,
मिला तो तुझको तब भी करता,
जब तूं चादर तान के सोए है,
चिंताओं की बांध पोटली,
सर पर अपने ढोए है,
काटे फसल वही अब जैसी,
पहले से ही बोए है,
देख ध्यान से दुनिया को,
हर पल ही यहां कोई मोए है,
रो मत संभाल श्वांसों की मटकी,
जो हर पल ही चोए है,
कर कर्म महान और सुमिर नाम,
जिसे करता विरला कोए है,
बने भविष्य उसी का उज्ज्वल,
जो हर पल मन को धोए है,
सुखी वही है इस जग में,
हर हाल में जो खुश होए है,
कर युद्ध स्वयं से जीत ले मन,
संग दुनिया तेरे होए है।
अब तक मुझे दिखा नहीं,
गल्ती मेरी,
उसकी नहीं,
चिलमन है आँखों में मेरी,
वह नहीं पर्दानशीं,
गल्ती है कानों की मेरी,
अब तक सुनी न धुन बंशी,
जुदा नहीं,
खफा नहीं,
नहीं है गुमशुदा कहीं,
यूँ है तो वह हर कहीं,
अभी यहीं,
सदा यहीं,
यह रुकावट बेवजह नहीं,
इसका भी है इलाज यहीं,
मन बात करता फिर रहा,
चौबीसों घँटे लड़ रहा,
कालिख है खुद पे मल रहा,
धूल में है सन रहा,
जो देखा इसको साफ कर,
हर इक को दिल से माफ कर,
तब जाना,
के क्यूं दिखा नहीं,
अब तक मुझे खुदा कहीं,
देखा पलट के खुद को जब,
जाना के है खुदा यहीं।
यूँ तो हल्का फुल्का,
दुबला पतला मैं धागा हूँ,
फिरकी पे लिपटा रहता,
खुद में सिमटा रहता हूँ,
दूकानों पर डिब्बों के भीतर,
खड़ा पड़ा रहता हूँ,
रंग अनेकोंनेक लिए,
चहुं ओर नजर आता हूँ,
सूती रेशमी टेरीकॉट,
नाइलॉन में दिख जाता हूँ,
हर कपड़े के भीतर दिखता,
सब कुछ ढंक जाता हूँ,
नींबू मिर्चा डाल गले,
नजरबट्टू बन जाता हूँ,
भरवां सब्जी के ऊपर बंध,
स्वाद बढ़ा जाता हूँ,
सुई हो हाथ में या मशीन में,
संग सदा रहता हूँ,
काम वफादारी से करता,
सब में बिंध जाता हूँ,
दिल से दिल के बीच पुली का,
काम भी कर जाता हूँ,
मोह से बुनकर रिश्तों को,
पक्का करता जाता हूँ,
धागा बन विश्वास का मैं,
दूरी हर इक मिटाता हूँ,
भाई के हाथ पे बंध के मैं,
बहना से प्यार बढ़ाता हूँ,
सच कहता हूं,
सच का भी बंधन मैं बन जाता हूँ,
प्रेम के रस में सन के मैं,
प्रभु को भी संग लिवा लाता हूँ।
मन दबा दबा कुचला सहमा,
डरा डरा सा क्यों है,
अलसाया मुरझाया,
सकुचाया सा क्यों है,
लुका छिपा सा यूं,
गिरा पड़ा क्यों है,
क्या है टीस दिल में,
जुबां दबी क्यों है,
पलकें हुईं हैं बोझिल,
सूखे होंठ क्यों हैं,
माथे पे हैं लकीरें,
ग्रीवा झुकी क्यों है,
तूं इतने दिनों से पीछे,
सहमा सा खड़ा क्यों है,
न कर स्वीकार हार को,
हार अभी तो हुई नहीं है,
देख खुशी से भीतर अपने,
अभी तो सुबह हुई नई है,
न छोड़ दामन आशाओं का,
अभी तो आशा जगी नई है,
छोड़ दे आहें खोल ले बाहें,
अभी तो किरणें खिली नई हैं,
छेड़ दी वीणा मन के भीतर,
अभी तरंगे उठी नई हैं।
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