
आज मैने खुशियां,
ढूंढ़ने की थी ठानी,
मल्टीप्लेक्स में पिक्चर देखी,
मैने ‘राजा जानी’,
हाल में जाकर ली थी,
मैने बोतल पानी,
इतनी मंहगी पेटिस तो,
मैने नहीं थी खानी,
अनमने मन से वहाँ से,
मैने की रवानी,
घुस गया बढ़िया रेस्टोरेंट में,
जेब थी पड़ी गंवानी,
खुशियां मिलीं न मुझको,
उल्टे याद आ गई नानी,
क्यों न पार्क में,
पेड़ पे चढ़ के,
लटक के झूलूं टहनी,
ज्यों ही चढ़ के पेड़ पर मैने,
लात बढ़ा कर तानी,
गिरा जोर से धम्म से नीचे,
अब नहीं रही जवानी,
देख नजारा पास में आई,
एक बुजुर्ग परनानी,
कहां पे खुशियां ढूंढ़ रहा तूं,
कर कर के मनमानी,
वह तो तेरे भीतर ही हैं,
बाहर कहां मनानीं,
सोच ध्यान से,
खोज ले भीतर,
बन कर के तूं ज्ञानी,
तेरे ही भीतर हैं मालिक,
और है संग भवानी,
खुरच उदासी फेंक दे कूड़ा,
खुशियां स्वयं आ जानीं।
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